Blood in Hindi A to Z

    Blood in Hindi

रक्त के बारे में सब कुछ जाने डिटेल से

शरीर के प्रत्येक ऊतक एवं अंगों को कार्य करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों एवं ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है। इनके अलावा विभिन्न शारीरिक क्रियाओं से उत्पन्न निरुपयोगी पदार्थों को शरीर से बाहर निष्कासित करना भी आवश्यक होता है।

ये दोनों महत्वपूर्ण कार्य रक्त द्वारा सम्पन्न दिए जाते हैं। 

रक्त, हृदय एवं रक्तवाहिनियों द्वारा समस्त शरीर में संचरित होता रहता है। रक्त का वितरण करने के लिए समस्त शरीर में केशवाहिनियों का जाल फैला हुआ है। 
 
केशवाहिनियाँ रक्त के द्वारा ऊतकों को पोषक तत्व एवं ऑक्सीजन देती हैं तथा बदले में उत्पन्न विकारों को अपने में शोषित कर लेती हैं। 
 
विकारों से भर जाने के बाद इनका रक्त अशुद्ध हो जाता है । अशुद्ध रक्त से भरी ये नलिकाएँ शिरिकाएँ कहलाती हैं । ये शिरिकाएँ आपस में मिलकर बड़ी शिराएँ (Veins) बनाती हैं। 
 
इस प्रकार सम्पूर्ण शरीर का अशुद्ध रक्त ऊर्ध्व महाशिरा ( Superior Vena Cava ) एवं अधोमहाशिरा ( Inferior Vena Cava ) द्वारा हृदय के दाहिने भाग में जमा होता है । वहाँ से शुद्धीकरण हेतु फेफड़ों में जाता है । यहाँ पर श्वांस से प्राप्त वायु का ऑक्सीजन रक्त द्वारा शोषित कर लिया जाता है । रक्त की अशुद्धि कार्बन डाइऑक्साइड ( CO )  के रूप में श्वांस द्वारा ही शरीर से बाहर चली जाती है । 
 
इस प्रकार रक्त शुद्ध होकर पुनः हृदय के बाएँ भाग में वापस आ जाता है । यहाँ से महाधमनी ( Aorta ) द्वारा समस्त शरीर में वितरित होता रहता है । शरीर में जीवनपर्यन्त यह रक्ताभिसरण चक्र चलता रहता है। 

  Blood in Hindi (रक्त, खुन) 

 रक्त एक लाल रंग का द्रव है । यह एक ऐसा जीवन द्रव ( Vital Fluid ) है जिस पर प्राणियों का जीवन निर्भर करता है । नलिकाओं द्वारा यह एक स्थान से दूसरे स्थानविशेष प्रकार पर बहता रहता है ।
 यह अपारदर्शी एवं नमकीन होता है । ताजा रक्त एक की गंध से युक्त होता है । मानव रक्त भी एक प्रकार का ऊतक है , परन्तु यह अन्य • ऊतकों से भिन्न होता है । अन्य कृतक ठोस और स्थिर रहते हैं , परन्तु रक्त द्रव होता है । एवं गतिशील भी होता है । परिणाम में यह शरीर भार का लगभग 1/20 भाग होता है । 
सामान्य स्वस्थ मनुष्य के शरीर में रक्त की मात्रा लगभग 6.7 लीटर होती है ।
    Blood in Hindi
Blood in Hindi
 
 रक्त का संगठन (COMPOSITION OF BLOOD) 
रक्त मुख्यतः दो पदार्थों का बना होता है
 
 1. तरल पदार्थ जो प्लाज्मा कहलाता है । 
 
2. ठोस पदार्थ या रक्त कणिकाएँ हैं । 
 
प्लाज्मा 55 % एवं कणिकाएँ 45 % होती हैं । 
 
1. प्लाज्मा ( Plasma ) – इसे रक्त प्लाविका भी कहते हैं । यह एक क्षारीय द्रव होता है जो हल्के पीले रंग का होता है । इसमें बहुत से पदार्थ घुले रहते हैं , जैसे- ‘ लूकोज , अमीनो एसिड , वसीय अम्ल , विटामिन , कैल्सियम लवण आदि । ये प्लाज्मा का 9 % भाग बनाते हैं शेष 91 % जलीय भाग रहता है । 
प्लाज्मा में प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है .इसके कारण यह चिपचिपा होता है । प्लाज्जा में रहने वाले घुलनशील प्रोटीन के प्रमुख भाग में एलब्यूमिन , ग्लोब्यूलिन तथा फाइबिनोजन रहता है । रक्त Blood in Hindi जब क्षतिग्रस्त ऊतकों के सम्पर्क में आता है ( चोट लगाने या कट जाने पर ) तो प्लाज्मा में स्थित फाइब्रिनोजन ही उसे थक्का बनाने में मदद करता है । 
 
जब रक्त थक्के में बदल जाता है और जैसे – जैसे थक्का कड़ा होता जाता है वैसे – वैसे उसमें से पानी जैसा एक तरह पदार्थ अलग हो जाता है । यह तरल पदार्थ सीरम (Serum) कहलाता है। 
 
रक्त प्लाविका ( Plasma ) में कैल्सियम , सोडियम , मैग्नीशियम , पोटैशियम आदि धातुओं के कार्बोनेट , क्लोराइड , फॉस्फेट इत्यादि उपस्थित रहते हैं । ये सभी लवण जीवन की महत्वपूर्ण विशिष्ट क्रियाओं के लिए अत्यन्त आवश्यक होते हैं । 
 
प्लाज्मा में आँतों से अवशोषित खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व , ग्लूकोज , वसीय अम्ल तथा अमीनो अम्ल आदि घुले रहते हैं । यह सब पोषक तत्व शरीर के ऊतकों के पोषण के लिए अनिवार्य होते हैं । ये पाचन तंत्र से अवशोषित होकर रक्त – धारा में मिलते रहते हैं और ऊतकों को पोषण प्रदान करते हैं । 
 
इन सबके अलावा प्लाज्मा में कुछ अन्य तत्व , जैसे — प्रोथोम्बिन , विटामिन , एन्जाइम्स तथा प्रतिपिंड ( Antibodies ) भी रहते हैं । शरीर में प्लाज्मा , रक्त के एक जलीय संघटक के रूप में , उसे प्रवाहित और संचारित होने में सहायता प्रदान करता है । 
 
परिसंचरण के दौरान इसमें कुछ विकार भी मिलते जाते हैं । विकारों में यूरिया प्रमुख रूप से रहता है जो वृक्कों में पहुँचकर रक्त से पृथक् होकर शरीर से निष्कासित होता रहता है । 
 
 
Blood in Hindi रक्त – कणिकाएँ या रक्तकण रक्त में तीन प्रकार की कणिकाएँ या कण पाये जाते हैं
(1) लाल – रक्त – कणिकाएँ (Red blood Carpuscles) R.B.CM
 
 (2) श्वेत रक्त के कणिकाएँ (White blood Carpuscles W.B.C) 
 
(3) प्लेटलेट्स या बिम्बाणु ( Platelets or Thrombocites )
 1. लाल रक्त कणिकाएँ (RED BLOOD CARPUCLES OR ERYTHOCYTES R. B. C.) 
मानव रक्त लाल रक्त कणिकाओं की संख्या सबसे ज्यादा होती है । लाल रक्त कण की नन्हीं – नन्हीं गोल , चपटी टिकियों के समान रचना होती है। ये दोनों ओर से दबे से अर्थात् उभयावतल ( Biconcave ) होते हैं। 
इनका बाहरी हिस्सा बीच वाले हिस्से की अपेक्षा अधिक मोटा होता है । 
Blood in Hindi माइक्रोस्कोप से देखने पर बीच का हिस्सा हल्के लाल रंग का एवं बाहरी हिस्सा गहरे लाल रंग का दिखता है । सभी स्तनधारी प्राणियों में (केवल ऊँट को छोड़कर) इसी प्रकार की लाल रक्त कणिकाएँ पाई जाती हैं ।
 
इनकी उत्पत्ति अस्थिमज्जा ( Bone – inarrow ) में होती है । प्रारम्भ में इनका आकार (Size) बड़ा होता है । इनमें केन्द्रक ( Nucleus ) पाया जाता है , परन्तु हीमोग्लोबिन अनुपस्थित रहता है । कुछ दिनों पश्चात् हीमोग्लोबिन प्रकट होता है तथा अंत में केन्द्रक ( Nucleus ) गायब हो जाता है ।
 
 इसी स्थिति में ये अस्थि मज्जा से रक्त में प्रवेश करती हैं । इनका व्यास 7-2 माइक्रोन होता है ( एक माइक्रोन 1 मिमी का हजारवाँ भाग ) । इनकी मोटाई करीब व्यास का 1/2 होती है । वयस्क पुरुषों में इनकी संख्या 5 मिलियन एवं स्त्रियों में 4.5 प्रति मिलियन होती है। 
 
शिशुओं में इनकी संख्या करीब 6 से 7 मिलियन एवं भ्रूण में 7-8 मिलियन होती है । परिपक्व लाल रक्त कण के ऊपर की झिल्ली पारदर्शी , मृदु एवं लचीली होती है । लाल रक्त कणों में प्रोटीन और लिपिड्स की बनी , एक जाल के समान रचना होती है जिसमें हीमोग्लोबिन भरा रहता है । इसी के कारण R.B.C लाल रंग के दिखाई देते हैं । 
 
हीमोग्लोबिन में ऑक्सीजन के प्रति अत्यधिक आकर्षण रहता है । ये न केवल ऑक्सीजन लेना जानते हैं बल्कि देना भी जानते हैं । ये हीमोग्लोबिन द्वारा R.B.C श्वांस से ग्रहण की गई वायु में से ऑक्सीजन प्राप्त करते हैं । ऑक्सीजन से भरपूर हो जाने पर ये चमकीले लाल रंग के ऑक्सी- हीमोग्लोबिन बन जाते हैं । 
 
यह ऑक्सी – हीमोग्लोबिन रक्त के साथ पूरे शरीर में परिसंचरित होता है । इस दौरान दूर – दूर के ऊतकों को जहाँ भी ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है । ये ऑक्सीजन दे देते हैं और स्वयं ऑक्सीजन मुक्त हो जाते हैं और इस प्रकार ऊतकों में हीमोग्लोबिन का अपचय ( Reduction ) हो जाता है । 
 
R.B.C का जीवनकाल 90 से 120 दिन का होता है । प्रायः प्लीहा ( Spleen ) में इनका जीवन समाप्त होता है इसीलिए प्लीहा को लाल रक्त कणों का समाधि स्थल (Grave – yard) कहा जाता है 
 
 लाल रक्त कणों का संगठन ( Composition of Red Blood Carpuscles ) R.B.C या लाल रक्त कणों में पानी की मात्रा 6 % एवं ठोस पदार्थ 35 % होते हैं । ठोस पदार्थों में 33 % हीमोग्लोबिन की मात्रा होती है जोकि 2 % जाल बनाने वाले प्रोटीन फॉस्फोलिपिड,कोलोस्टोरा, इस्टर्स तथा न्यूट्रल फैट से जुड़ा रहता है।
 
 कुछ मात्रा में दूसरे कार्बनिक पदार्थ यूरिया , अमीनो अम्ल , क्रिएटिनिन , एडीनाइल , पायरोफॉस्फ़ेट एवं डाइफॉस्फॉग्लिसरेट होते हैं । कुल लिपिड्स का 6 % फॉस्फोलिपिड होती है ।
 
 लाल रक्त कणों के कार्य
 (Functions of Red Blood Carpuscles) 
  •  लाल रक्त Blood in Hindi कण ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड के परिवहन का कार्य करते हैं।
  •  लाल रक्त कण अम्ल क्षार संतुलन बनाए रखने का कार्य करते हैं । इनमें उपस्थित हीमोग्लोबिन एक अच्छे बफर का कार्य करता है ।
  •  लाल रक्त कण अपनी संख्या की अधिकता के कारण रक्त को गाढ़ापन प्रदान करते हैं । 
  •   इनके विच्छेदन से बिलीरुबीन एवं बिलवर्डीन जैसे पिगमेट्स का निर्माण होता है । 
  •  लाल रक्त कण अपनी पारगम्य कोशिका झिल्ली के कारण कुछ पदार्थों तथा आयन्स को बाहर जाने देते हैं तथा कुछ को नहीं इस प्रकार रक्त में धनात्मक एवं ऋणात्मक आयन्स का संतुलन बना रहता है । 
 
2. श्वेत रक्त कणिकाएँ ( WHITE BLOOD CARPUSCLES : W.B.C.) 
 
ये अनियमित आकार की रंगहीन , पारदर्शी रचनाएँ होती हैं । इनका आकार R.B.C की अपेक्षा बड़ा होता है । इनकी संख्या लाल रक्त कणों की अपेक्षा बहुत कम होती है । प्रति घन मिमी रक्त में इनकी संख्या लगभग 6000-8000 होती है।
 
 इस प्रकार लगभग 700 लाल रक्त कणों के पीछे मात्र एक श्वेत रक्त कण होता है । इनका निर्माण अस्थिमज्जा ( Bone marrow ) में होता है । इनमें केन्द्रक ( Nucleus ) पाया जाता है । केन्द्रक की संख्या प्रायः एक से अधिक होती है । इनका जीवन एक या दो दिन का होता है। 

 

श्वेत रक्त कण या W.B.C. में प्रचुर मात्रा में न्यूक्लियो प्रोटीन्स होते हैं। इसके अलावा लिपिड्स , ग्लायकोजन , कोलिस्टरोल , एसकार्बिक एसिड एवं अनेक एन्जाइम्स मुख्य रूप से प्रोटियोलाइटिक एन्जाइम पाए जाते हैं।
 
 श्वेत रक्त कणों की आकृति परिवर्तनशील होती है । जीवित अवस्था में ये अपना आकार अमीबा की तरह बदलते रहते हैं इस तरह ये पतली से पतली रक्त केशिका में आसानी से आगे बढ़ जाते हैं।
 
श्वेत रक्त कणों का प्रमुख कार्य रक्त में आये हुए विजातीय पदार्थों और रोगजनक जीवों ( Pathogenic – Organism ) को नष्ट करके उनसे शरीर की रक्षा करना है। 
ये कण ( W.B.C. ) प्रहरी के समान शरीर की रक्षा करते हैं । ये प्रभावित क्षेत्रों ( Effected area) की ओर दौड़कर शत्रु को चारों ओर से घेर कर उन पर हमला करते हैं। और दोनों में युद्ध छिड़ जाता है। 
 
श्वेत कण उन्हें निगल जाते हैं या मार कर नष्ट कर देते हैं । इस कार्य हेतु इनकी संख्या में वृद्धि देखी जाती है । कभी – कभी इनकी संख्या में कमी भी देखी जाती है। 
 
उदाहरण टायफॉइड या वाइरस इन्फैक्शन के समय । कभी – कभी बैक्टीरिया ऐसा शक्तिशाली विष उत्पन्न करते हैं कि ये विष W.B.C. को मार डालता है । मृतक W.B.C. तथा द्रवित मृत ऊतकों ( Dead W.B.C. & Liquified Dead Tissue) से मिल कर ही पस (Pus) बनता है ।
 
बैक्टीरिया को मारने के बाद , क्षतिग्रस्त एवं नष्टप्रायः ऊतकों (Damaged and Destroyed Tissues) का निष्कासन करके W.B.C घाव भरने ( Healing ) में भी सहायता प्रदान करते हैं । 
 
W.B.C. से उत्पन्न प्रतिपिंड एवं प्रतिविष ( Antibodies and Antitoxin ) शत्रुओं एवं उनसे उत्पन्न विषों से शरीर की रक्षा करते हैं । श्वेत रक्त कणों में जीवाणु भक्षण क्षमता ( Phagocytosis ) भी अत्यधिक पायी जाती हैं । 
 
Blood in Hindi के प्रयोगों से यह भी पता चला है कि श्वेत कण , स्वाद की शक्ति से भी सम्पन्न होते हैं । यदि जीवाणुओं में उसी व्यक्ति का रक्त या सीरम मिला दिया जाय जिसके वे कण होते हैं तो वे तुरन्त जीवाणुओं को खा जाते हैं। 
 
जो वस्तुएँ इन जीवाणुओं को स्वादिष्ट बनाती हैं वे ऑप्सोनिन ( Opsonin ) कहलाती हैं । भिन्न – भिन्न जंतुओं के सीरम में जितना ऑप्सोनिन रहता है उसी के अनुसार श्वेत रक्त कणों की जीवाणु भक्षण क्षमता में अंतर पड़ता है । 
 
श्वेत रक्त कणों के प्रकार 
(TYPES OF WHITE BLOOD CARPUSCLES)
 
 श्वेत रक्त कण निम्न प्रकार के होते हैं Blood in hindi
 
 (i) दानेदार श्वेत कण ( Granular Leucocytes )
 
 (ii) दानेरहित श्वेत कण ( Non – Granular Leucocytes ) 
 
 
(i) दानेदार श्वेत कण (Granular Leucocytes) — इनका साइटोप्लाज्म दानेदार होता है। इनके केन्द्रक (Nucleus) में दो या दो से अधिक खंड (Lobes) पाये जाते हैं। 
इनकी उत्पत्ति अस्थि मज्जा के विशिष्ट सेल से होती है जिसे माइलोब्लास्ट (Myeloblast) कहते हैं।
 
 स्टेनिंग गुण के आधार पर Blood in Hindi को इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है। 
 
 1. न्यूट्रोफिल ( Neutrophil ) — इनके दाने अतिसूक्ष्म होते हैं । इन पर समान रूप से रंग चढ़ता है । इनका सायटोप्लाज्म पारदर्शक होता है । केन्द्रक 2-5 खण्डों में बँटा रहता है।
 
 2. इओसिनोफिल ( Eosinophil ) — इन पर लाल अम्लीय रंग चढ़ता है । इनके दाने खुरदरे एवं मोटे होते हैं । केन्द्रक के 2 खंड होते हैं।
 
 3. बेसोफिल ( Basophil ) – इनका आकार कुछ छोटा होता है। इन पर केवल क्षारीय रंग चढ़ता है । इनके दाने भी मोटे होते हैं और रंग नीला होता है । केंन्द्रक के खंडों की संख्या 2-3 होती है।
 
 
( ii ) दानेरहित श्वेत कण ( Non – granular Leucocytes) — इनका सायटोप्लाज्म दानेरहित होता है। 
 
ये दो प्रकार के होते हैं। 
 
(अ) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) 
 
(ब) मोनोसाइट्स (Monocytes) 
 
(अ) लिम्फोसाइट्स ( Lymphocytes ) Blood in Hindi — इनका एक ही बड़ा और गोलाकार केन्द्रक होता है । सायटोप्लाज्म बहुत कम होता है एवं किनारे पर होता है । इनकी उत्पत्ति लसिका ग्रंथि ( Lymph Gland ) थाइमस ( Thymus ) तथा प्लीहा ( Spleen ) में तथा विनाश की लसिका ग्रंथि में होता है।
 
 
 (ब) मोनोसाइट्स ( Monocytes ) — ये आकार में बड़े एवं दानेरहित होते हैं । इनका केन्द्रक वृक्काकार ( Kidney Shaped ) सा होता है । इनकी उत्पत्ति अस्थिमज्जा , लसिका ग्रंथि एवं प्लीहा से होती है ।
  लाल रक्त कण एवं श्वेत रक्त कणों में अन्तर
 (DIFFERENCE BETWEEN R.B.C. & W.B.C.) 
 

लाल रक्त कण

श्वेत रक्त कण 

1. इनमें हीमोग्लोबिन पाया जाता है। 

इनमे हीमोग्लोबिन नहीं पाया जाता है। 

2.ये आकार में छोटे होते हैं। 

आकार में सामन्यत:बड़े होते हैं। 

3.इनमे केंद्र नहीं पाया जाता है। 

केंद्र नहीं पाया जाता है। 

4.निश्चित आकार होता है। 

आकार परिवर्तनशील होते हैं। 

5.संख्या अधिक होती है। 

संख्या कम होती है। 

6.जीवन 120 दिन का होता है। 

जीवन एक या दो दिन का होता है। 

7.इसका एक ही प्रकार होता है। 

इसके कार्य कई प्रकार के होते हैं। 

8.ये ऑक्सिजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड के परिवहन का कार्य करता है। 

ये ऑक्सिजन का परिवहन करते हैं और रक्षात्मक कार्य करते हैं। 

 

 
 
 रक्त कणों के कार्य 
(FUNCTIONS OF W.B.C. In Hindi)
 
 1. बैक्टीरिया के आक्रमण से शरीर की रक्षा करना ।
 
 2. प्रतिपिंड एवं प्रतिविष ( Antibodies & Antitoxin ) उत्पन्न कर शरीर रक्षा करना । 
 
3. हिपेरिन स्रावण – W.B.C. की बेसोफिल सेल्स हिपेरिन नामक पदार्थ का निर्माण करती है जो शरीर के अंदर रक्त को जमने से रोकता है । 
 
4. W.B.C. की ओसिनोफिल सेल्स से निकलने वाला हिस्टामिन शरीर को एलर्जी से बचाता है ।
 
 
 5. फेगोसायटोसिस क्रिया – Blood in Hindi जब भी कोई विजातीय पदार्थ या बैक्टीरिया शरीर में प्रवेश करता है तब न्यूट्रोफिल्स तथा मोनोसाइट्स W.B.C. अपने कूटपादों द्वारा उन्हें निगल जाते हैं और नष्ट कर देते हैं यह क्रिया फेगोसायटोसिस कहलाती है ।
 
6. W.B.C. ट्रिफोन्स नामक पदार्थ का निर्माण करते हैं जो ऊतकों की वृद्धि एवं मरम्मत (Growth and ‘ Repair) में मदद करता है । 
श्वेत रक्त कणों की संख्या को प्रभावित करने वाले तत्व 
( FACTORS AFFECTING THE NUMBER OF W.B.C. ) 
 
1. दैनिक परिवर्तन- प्रातःकाल पर्याप्त विश्राम के बाद इनकी संख्या सबसे कम होती है। दोपहर बाद संख्या बढ़ने लगती है एवं सायंकाल इनकी संख्या सर्वाधिक रहती है। 
 
2. शारीरिक व्यायाम म- इससे W.B.C. की संख्या बढ़ जाती है। 
 
 3. उम्र – सामान्यतः बचपन में W.B.C. की संख्या ज्यादा होती है। नवजात शिशु में तो इनकी संख्या अत्यधिक होती है। 
 
 4. शारीरिक अवस्था – गर्भावस्था के आखिरी दिनों में इनकी संख्या बढ़ जाती है।
 
 5. एड्रीनलिन इंजेक्शन – ये भी W.B.C. संख्या बढ़ाते हैं। 
 
6. संक्रमण एवं शल्यक्रिया – इनसे भी W.B.C. संख्या में वृद्धि देखी जाती है।
 
 7. रोग या बीमारी – त्वचा सम्बन्धी रोग तथा अस्थमा भी W.B.C. ( इयोसिनोफिल ) की संख्या बढ़ाते हैं। 
 
8. आहारहीनता की स्थिति W.B.C. की संख्या कम करती है।
 9. रसायन – कुछ रसायनों का प्रयोग ( जैसे – बेंजीना सल्फोनामाइड ) W.B.C. की संख्या को कम करता है। 
10. आवेश , डर एवं दर्द W.B.C. की संख्या बढ़ाते हैं। 
 
11. एड्रीनल कॉर्टिकल स्टिरॉइड एवं ACTH हॉरमोन न्यूट्रोफिल की संख्या बढ़ाते हैं , परन्तु इयोसिनोफिल तथा लिम्फोसाइट्स की संख्या कम करते हैं।
 
 
 3. प्लेटलेट्स या बिम्बाणु
 (PLATELETS OR THROMBOCYTES) 
Blood in Hindi ये गोलाकार या अण्डाकार , उभयतल रचना के होते हैं । इनकी संख्या W.B.C. से पचास गुना ज्यादा होती है। ये R.B.C. से भी छोटे होते हैं । इनका निर्माण अस्थि मज्जा में होता है तथा विनाश प्लीहा में होता है। ये रक्त को जमने में सहायता प्रदान करते हैं । इनका औसत व्यास 2.5p होता है ।
 ये एक झिल्ली द्वारा घिरे रहते हैं। इनका औसत जीवन 5 से 9 दिन का होता है।
 इन्हें स्टेनिंग करके माइक्रोस्कोप से देखा जाय तो दो भाग स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। 
 
 (i) हायलोमीयर (Hyalomere) – यह स्वच्छ आधार पदार्थ होता है तथा बहुत कम स्टेन लेता है।
 (ii) क्रोमेटोमीयर ( Chromatomere ) – यह मध्य भाग होता है जो गहरा स्टेन लेता है।
 
    विशेषताएँ एवं कार्य (Characteristics and Functions) 
 
(1) इसमें पानी की सतह पर चिपकने का गुण होता है।
(2) ये शीघ्र एवं आसानी से गुच्छा बना लेती है।
 
 ( 3) ये थ्रोम्बोप्लास्टिन ( Thromboplastin ) मदद करता है ( प्रोथ्रोम्बिन को थ्रोम्बिन में बदल देता है।) स्रावित करती हैं जो रक्त जमने में
 
 (4) प्लेटलेट्स टूटी हुई केशिकाओं की दीवार के पास जमा होकर मरम्मत का कार्य करती है।

 रक्त के कार्य
 FUNCTIONS OF BLOOD in hindi

 (1) भोज्य पदार्थों का परिवहन एवं वितरण (Transportation and Distribution of Food ) – रक्त भोजन से अवशोषित पोषक तत्वों तथा विटामिनों को संग्रहित करके समस्त ऊतकों में वितरित करता है । आवश्यकतानुसार पोषक तत्वों को उनके संचयागार ( Storage Depot ) से ऊतकों तक भी पहुँचाता है।
 (2) गैसों का संवहन एवं वितरण ( Transportation and Distribution of Gases ) – रक्त फेफड़ों में पहुँचकर लाल रक्त कणों के ही हीमोग्लोबिन की सहायता से श्वसन से ऑक्सीजन प्राप्त करके उसका संवहन करता है एवं उसे ऊतकों में वितरित करता है। 
(3) निरुपयोगी पदार्थों का निष्कासन ( Drainage of Waste Products ) – रक्त ऊतकों में उत्पन्न विभिन्न विकारों को उनके उत्सर्जक अंगों ( Excretory Organs ) तक ले जाकर उनका निष्कासन करवाता है , जैसे मूत्रपिंड द्वारा यूरिया , त्वचा द्वारा अनावश्यक जल एवं फेफड़ों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड जैसे निरुपयोगी पदार्थ रक्त की सहायता से ही निष्कासित किये जाते हैं।
 (4) शारीरिक ताप का नियंत्रण – रक्त समस्त शरीर में ताप का समान वितरण करके शरीर के ताप का नियंत्रण करता है । रक्त , त्वचा एवं फेफड़ों की सहायता से शरीर के ताप को 984 ° F पर रखता है।
  (5) पानी का संतुलन बनाये रखना रक्त ऊतकों की पानी की मात्रा को बनाए रखता है एवं शरीर के विभिन्न भागों में द्रव की मात्रा को नियमित करता है ।
 
 (6) अम्ल क्षार संतुलन बनाए रखना- रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन एक अच्छे बफर की तरह कार्य करता है तथा त्वचा , मूत्रपिंड एवं फेफेड़ों ( Skin , Kidney and Lungs ) की सहायता से शरीर का अम्ल क्षार संतुलन बनाए रखता है।
 (7) आयन संतुलन बनाए रखना- रक्त कोशिका और उसके आसपास के द्रव में आयन का संतुलन बनाए रखने में सहायता करता है।
 
 (8) वाहक के रूप में कार्य करना – रक्त हॉरमोन्स , विटामिन्स एवं दूसरे रसाधनों को उनके क्रिया करने वाले स्थानों तक पहुँचाने के लिए वाहक की तरह कार्य करता है।
 
 (9) रक्त जल संवहन के द्वारा शरीर के ऊतकों को सूखने से बचाता है उन्हें नम एवं मुलायम रखता है।
 (10) रक्त शरीर के द्रवों ( Liquids ) को तथा ऊतकों के रसाकर्षण दाब ( Osmotic Pressure ) को संधारित और अनुरक्षित रखता है ।
(11) रक्त फैगोसायटिक क्रिया द्वारा रोगजनक जीवाणु तथा हानिकारक विषों से ( प्रतिपिंड एवं प्रतिविष उत्पन्न कर ) शरीर की रक्षा करते हैं । इस प्रकार रक्त W.B.C , द्वारा जीवाणु संक्रमण का सामना करता है ।
 
 (12) रक्त अन्य ग्रंथियों तक भी उनके उपयुक्त रसोत्पादन सामग्री पहुँचाता हैं।
 (13) Blood in Hindi रक्त अपने जमने ( Clotting ) के गुण के द्वारा रक्तस्राव को रोक कर जीवन की रक्षा करता है। 
 
(14) रक्त अपने आयतन ( Volume ) एवं श्यानता ( Viscosity ) में परिवर्तन लाकर रक्त दाब ( Blood Pressure ) पर नियंत्रण रखता है । 
रक्त का स्कंदन या रक्त का जमना
 (COAGULATION OF Blood) OR (CLOTTING OF BLOOD) 

शरीर के किसी स्थान पर कट जाने, चोट लग जाने पर रक्त शरीर से बाहर निकलने लगता है। रक्त जैसे महत्वपूर्ण जीवन द्रव का शरीर से बाहर निकल जाना शरीर के लिए अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हो सकता है और इसका परिणाम भीषण भी हो सकता है। अत्यधिक स्राव कभी – कभी मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

 Blood in Hindi अतः रक्त को प्रकृति ने ऐसी तात्कालिक स्वतः प्रवृत्ति (Spontaneous tendency) प्रदान की जिससे रक्त की क्षति अपने आप रुक जाती है । यह क्रिया रक्त के वायु के सम्पर्क में आने पर जम जाने के कारण सम्भव हो पाती है। रक्त का स्कंदन या रक्त का जमना एक प्राकृतिक क्रिया है । इस क्रिया में रक्त , जमकर रक्त नलिका के द्वार को बंद कर देता है जिससे रक्तस्राव स्वतः बंद हो जाता है।
 रक्त का जमना इस प्रकार रक्त का जमना जीवन रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण क्रिया है । रक्त जमने की क्रिया एक जटिल रासायनिक प्रक्रियाओं की श्रृंखला है । रक्त प्लाज्मा में थ्रोम्बिन ( Thrombin ) नामक एक एन्जाइम (Enzyme) होता है जो रक्त में उपस्थित फाइब्रिनोजिन (Fibrinogin) नामक प्रोटीन को द्रव से ठोस रूप में बदल देता है । 
 
यह क्रिया ऊतकों की रक्त कोशिकाओं तथा वाहिकाओं के कटने – फटने के फलस्वरूप निकले रक्त के साथ होती है । कटे या क्षतिग्रस्त भाग से प्लेटलेट्स तथा थ्रोम्बोप्लास्टिन (Thromboplastin) बाहर निकल आता है (बहते हुए रक्त के प्लेटलेट्स तथा रक्त के कुछ ‘ रक्त तत्व (Blood Factors) क्षतिग्रस्त ऊतकों से मिलकर सर्वथा नवीन पदार्थ थ्रोम्बोप्लास्टिन का निर्माण करते हैं। 
 
कैल्सियम आयन की उपस्थिति में थ्रोम्बोप्लास्टिन प्रोथ्रोम्बिन को थ्रोम्बिन में बदल देता है तथा थ्रोम्बिन प्लाज्मा में घुले फाइब्रिनोजन को अविलेय फाइब्रिन ( Fibrin ) में बदल देता है । फाइब्रिन तंतु एक जाल सा बनाते हैं जिसमें रक्त कण फँस जाते हैं और इस प्रकार रक्त का थक्का बन जाता है। 
यही प्रक्रिया रक्त का स्कंदन या रक्त का जमना ( Clotting of Blood ) कहलाती है । यह थक्का कुछ समय बाद सिकुड़ता है , जिससे पीले रंग का फाइब्रिन जाल से बाहर छनकर निकल जाता है । यह सीरम (Serum) कहलाता है।
 
 
 तंतु जाल की कोशिकाएँ जब सीरम से अलग होती हैं तो एक ठोस थक्का बनाती हैं। यह थक्का घाव को बंद करके रक्त को बहने से रोकता है । जब रक्त , रक्त वाहिनियों में बहता है तब वह नहीं जमता क्योंकि रक्त जमने में सक्रिय घटक थ्रोम्बिन को प्रोथ्रोम्बिन निष्क्रिय किये रहता है तथा शरीर में हिपेरिन नामक थक्का अवरोधी तत्व पाया जाता है इसलिए शरीर के अंदर रक्त नहीं जमता। 
 
रक्त जमने में सहायक तत्व 
 
1. कोशिका क्षति – जिससे थ्रोम्बोकाइनेज एन्जाइम (Thrombokinase Enzyme ) प्रकट होता है।
 
 2. कैल्सियम लवण ( Calcium Salt ) – सामान्य रूप से रक्त में उपस्थित रहते हैं। 
 
 
3. थ्रोम्बिन ( Thrombin ) – थ्रोम्बोकाइनेज की सहायता से थ्रोम्बिन से बनता है। 
 
4. फाइब्रिन ( Fibrin ) – थ्रोम्बिन की उपस्थिति में फाइब्रिनोजन से बनता है ।
 
 थक्का बनने की अवस्थाएँ 
(STAGES OF BLOOD CLOTTING) 
I. क्षतिग्रस्त प्लेटलेट्स या ऊतक कोशिकाओं से – थ्रोम्बोकाइनेज ( Thrombokinase )
 II. थ्रोम्बोकाइनेज + प्रोथ्रोम्बिन + कैल्सियम                
                                                                                                           = थ्रोम्बिन ( Thrombin )
    ( Thrombokinase + Prothrombin + Ca ++ )
 
                              ↓
 III. थ्रोम्बिन + फाइब्रिनोजन
                                                                                                           = फाइब्रिन ( Fibrin )
       (Thrombin + Fibrinogen) 
                             ↓
IV. फाइब्रिन + रक्ताणु 
                                                                                                           =   थक्का  ( Blood clot )
    (Fibrin + Carpuscles)
 Blood in Hindi प्रोथ्रोम्बिन का निर्माण यकृत ( Liver ) में होता है इसके लिए विटामिन K आवश्यक होती है ।
 रक्त जमने की क्रिया को प्रभावित करने वाले तत्व
 
 

रक्त जमने की क्रिया को बढ़ाने वाले तत्व

 

जमने की क्रिया को कम करने वाले तत्व

1. उच्च ताप

निम्न ताप

2. खुरदरी सतह

फाइब्रिनोजन का अवशोषण

3. एड्रीनलीन इंजेक्शन

कैल्सियम आयन्स का हटाना 

4. विटामिन K की अधिकता

हिपेरिन इंजेक्शन  

5. थ्रोम्बिन मिलाना

पेप्टोन , हिसडिन , डीक्यमरोल आदि देना

6. थ्रोम्बोप्लास्टिन मिलाना 

कुछ एजोडस ( Azodus ) देना

7. कैल्सियम क्लोराइड मिलाना

no

 

 रक्त वाहिनियाँ

 (THE BLOOD VESSELS) 

रक्त वाहिनियाँ खोखली नलियाँ हैं जो ऑक्सीजिनेटेड ( शुद्ध रक्त ) रक्त को शरीर के सभी भागों में पहुँचाती हैं एवं डीऑक्सीजिनेटेड ( अशुद्ध ) रक्त को शरीर के सभी भागों से एकत्र कर हृदय तक लाती हैं । ये निम्न प्रकार की होती हैं 

1. धमनियाँ ( Arteries ) — Blood in Hindi ये नलिकाएँ शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर में भेजने का कार्य करती हैं । सिर्फ फुफ्फुस धमनी इसका अपवाद है । वह अशुद्ध रक्त का संवहन करती है । बड़ी धमनी अनेक पतली धमनियों में विभाजित हो जाती है । इन्हें आट्रिओल्स ( Arteioles ) कहते हैं । 

धमनियों की दीवारें तीन परतों की बनी रहती हैं

 (1) ट्यूनिका एडवेण्टिशिया ( Tunica Adventitia ) — यह तंतुमय बाहरी आवरण होता है।

 (2) ट्यूनिका मीडिया (Tunica Media) – यह मध्य आवरण होता है जो अनैच्छिक पेशी एवं लचीले ऊतक का बना होता है।

(3) ट्यूनिका इन्टिमा (Tunica Intima) – यह भीतरी आवरण होता है। यह एन्डोथीलियम का बना चिकना आवरण होता है इसमें रक्त सरलता से बहता है। 

2. शिराएँ ( Veins ) — ये नलियाँ अशुद्ध रक्त का संवहन करती हैं (फुफ्फुसीय शिरा इसका अपवाद है इसमें शुद्ध रक्त बहता है)। इनकी दीवारें पतली होती हैं। इनकी दीवारें भी धमनियों की दीवारों के समान तीन आवरणों की बनी होती हैं। शिराओं में कहीं – कहीं वाल्व भी लगे रहते हैं जो गलत दिशा में रक्त प्रवाह को रोकते हैं। शिराओं में पेशी और लचीले ऊतक कम होते हैं इसलिए ये आसानी से दबायी जा सकती हैं। 

शिराएँ शरीर के बाहरी ओर पायी जाती हैं इसमें रक्त दबाव कम होता है । केशिकाएँ जुड़कर छोटी – छोटी शिराएँ बनाती हैं । यही छोटी – छोटी शिराएँ मिलकर ऊर्ध्व महाशिरा (Superior Vena Cava) एवं अधोमहाशिरा (Inferior Vena Cava) नामक दो बड़ी शिराएँ बनाती हैं।

 धमनी एवं शिरा में अंतर 

(DIFFERENCE BETWEEN ARTERY AND VEIN) 

धमनी Artery 

शीरा Vein

1. हृदय से शरीर की ओर रक्त ले जाती है।

शरीर के भागों से हृदय की ओर रक्त लाती है। 

2. फेफड़ों की धमनियों के अलावा सभी धमनियों में शुद्ध रक्त बहता है।

फेफड़ों की शिराओं के अलावा सभी में अशुद्ध रक्त बहता है। 

3. दीवारें मोटी तथा खुली होती है। 

दीवारें पतली होती है। 

4. शरीर के भीतरी भाग में पायी जाती है। 

बाहरी भाग में पायी जाती है। 

5. रक्त झटके के साथ बहता है। 

धीमी गति से बहता है। 

6. रक्त का दाब अधिक होता है। 

रक्त का दाब कम होता है। 

7. धमनियां फूलने वाली होती है। 

शिरायें चिपकने वाली होती है। 

8. धमनियां का रंग गुलाबी होता है। 

शिरायें का रंग नीला होता है। 

9. नाड़ी स्पन्दन के स्थान होते हैं। 

नाड़ी स्पन्दन के स्थान नहीं होते हैं। 

 हृदय स्पंदन या धड़कन ( HEART BEAT )

एक स्वस्थ मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72-80 बार धड़कता है। धड़कन की यह गति कम या अधिक हो सकती है। हर धड़कन के पहले आलिंदों का संकुचन होता है, फिर निलय संकुचित होते हैं, फिर दोनों एक साथ शिथिल होते हैं। यह क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहता है। हृदय के संकुचन को सिस्टोल (Systole) एवं शिथिलन को डायस्टोल (Diastole) कहते हैं। ये दोनों मिलकर एक हृदय चक्र (Cardiac Cycle) बनाते हैं। हृदय की प्रत्येक धड़कन आलिंद के एक बिंदु से प्रारम्भ होती है जिसे पेस मेकर (गति प्रेरक ) या सायनों एट्रियल नोड (SA Node) कहते हैं।

 यह स्थान उस स्थान पर होता है। जहाँ ऊपरी महाशिरा हृदय में प्रविष्ट होती है । हृदय की एक धड़कन में 0.8 सेकण्ड का समय लगता है।

 हृदय की धड़कन को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors Affecting Heart Beat) 

1. Blood in Hindi आयु- शिशुओं की हृदय धड़कन अधिक रहती है (जन्म के समय 120-130), जैसे – जैसे आयु बढ़ती जाती है यह कम होती जाती हैं । बुढ़ापे में मंद हो जाती है। 

2. लिंग – स्त्रियों की हृदय की धड़कन दर पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा होती है। 

3. शारीरिक स्थिति – व्यायाम हृदय धड़कन दर को तेज एवं आराम हृदय दर को कम करता है। 

4. मानसिक स्थिति – भावावेश और उत्तेजना इसे तेज करती है। 

5. स्वभाव – शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों की हृदय गति मंद एवं क्रोधी व्यक्तियों की तीव्र रहती है। 

6. बीमारी या अस्वस्थता – बुखार , रक्तस्राव आदि हृदय गति बढ़ा देते हैं। 

हृदय ध्वनि (HEART SOUND) 

हृदय की धड़कन ध्वनि पैदा करती है। यदि हृदय के निकट कान लगाकर सुना जाय तो लप्प – डप्प (Lupp – Dupp) ध्वनि सुनाई देती है। लप्प की ध्वनि त्रिदल पर्दे (Tricuspid Valve) तथा द्विदल पर्दे (Bicuspid Valve) के बंद होने से उत्पन्न होती है, जबकि डप्प ( Dupp ) की ध्वनि महाधमनी तथा पल्मोनरी शिराओं के वाल्व बन्द हो जाने के कारण उत्पन्न होती है। 

Blood in Hindi लप्प शब्द की उत्पत्ति हृदय के संकुचन के समय होती है इसलिए इसे सिस्टोनिक साउण्ड कहा जाता है। जबकि डप्प की ध्वनि शिथिलन काल के प्रारम्भ में होती है अतः इसे डायस्टोलिक साउण्ड कहते हैं। हृदय की ध्वनि का रोगों के निदान में अत्यंत महत्व होता है। 

नाड़ी (PULSE) 

में धमनियों में शुद्ध रक्त बहता रहता है। जब धमनी का वह भाग जिस पर अंगुली में का दबाव होता है हृदय द्वारा भेजे गये रक्त के रेले से फैलकर चौड़ा हो जाता है। इस फैलने या चौड़ा होने का धक्का अंगुलियों में अनुभव होता है , परन्तु जब रक्त उस स्थान से आगे बढ़ जाता है तब धमनी फिर से दब जाती है। इस प्रकार रक्त का रेला फिर से आने पर धमनी के प्रसरित होने का अनुभव अंगुलियों को होता है। यही क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहता है। जब तक नाड़ी चलती है मनुष्य जीवित रहता हैं। नाड़ी बंद होने का अर्थ जीवन समाप्त होना है। 

नाड़ी दर (Pulse Rate) 

नाड़ी दर को आयु , लिंग, उत्तेजना, परिश्रम, तत्परता तथा शारीरिक अवस्था प्रभावित करती है। बाल्यावस्था में नाड़ी दर अधिक होती है। आयु बढ़ने पर कम होती जाती है। बुखार की स्थिति में यह दर बढ़ जाती है। नाड़ी दर अग्रानुसार होती है। 

आयु नाड़ी दर ( Pulse Rate ) 

आयु 

नाड़ी गति प्रति मिनट 

1 बर्ष 

120 से 150 बार 

2 बर्ष 

110 से 120 बार 

4 से 6 बर्ष 

95 बार 

7 से 14 बर्ष 

75 से 80 बार 

वयस्क

72 बार 

वृद्ध 

60 से 65 बार 

 रक्त दाब (BLOOD PRESSURE in Hindi) 

रक्त द्वारा रक्तवाहिनियों की दीवार पर डाला गया दबावरक्तदाब कहलाता है। दूसरे शब्दों में हृदय की धड़कन यासंकुचन से धमनी की लचीली दीवार पर एक तनाव विकसित होता है। धमनी की दीवार पर रक्त संचरण के द्वारानिर्मित होने वाला तनाव ही रक्त दाब कहलाता है। 

यह दाब हृदय चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न – भिन्न होता है । निलय संकुचन के दौरान जब बायाँ निलय रक्त को महाधमनी में बलपूर्वक धकेलता है तब रक्त दाब सर्वाधिक रहता है। इसे सिस्टोलिक रक्त दाब (Systolic Blood Pressure) कहते हैं। 

Blood in Hindi प्रौढ़ व्यक्तियों में सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 110 से 140 मिलीमीटर पारे के बीच तथा डाइस्टोलिक प्रेशर (Dystolic Pressure ) 70-80 मिलीमीटर पारे तक रहता है । रक्त दाब का घटना बढ़ना अस्वस्थता का तथा स्थित रहना स्वस्थता का परिचायक होता है। रक्त दाब का बढ़ना उच्च रक्त दाब (High Blood Pressure या Hypertension) तथा रक्त दाब का कम होना निम्न रक्त दाब ( Low Blood Pressure या Hypotension ) कहलाता है। 

रक्त दाब का अत्यधिक बढ़ना या अत्यधिक कम होना दोनों स्थिति जीवन के लिए हानिकारक होती हैं । सामान्यतः हमारा रक्त दाब आयु + 90-10 रहता है । उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति की आयु 50 वर्ष है तो उसका रक्त दाब 50 + 90-10= 130mm of Hg होना चाहिए। 

नीचे का दाब ( Systolic Pressure ) हमेशा 70 से 90 ही रहता है। रक्त दाब को बहुत से तत्व प्रभावित करते हैं , जैसे आयु , लिंग, व्यायाम, निद्रा, शारीरिक स्थिति आदि । विश्राम या निद्रा के समय रक्त दाब सामान्य या कम रहता है परन्तु व्यायाम, खेलते समय, क्रोध आदि से बढ़ जाता है । 

Blood in Hindi समान्य रक्त दाब निम्नानुसार होता है

आयु 

सिस्टोलिक प्रेशर 

डायस्टोलिक प्रेशर

शैशवावस्था 

60 से 90 mm of Hg

50 mm of Hg

बचपन 

80 से 110 mm of Hg

60 mm of Hg

किशोरावस्था 

90 से 110 mm of Hg

60 mm of Hg 

युवावस्था 

110 से 125 mm of Hg 

60 से 70 of Hg 

प्रौढ़ावस्तथा 

आयु +90 – 10 mm of Hg 

80 से 90 of Hg

 ब्लड ग्रुप (Blood group) 

ब्लड ग्रुप चार प्रकार के होते है A, B, AB और O हर ब्लड ग्रुप Rh+ नेगेटिव और Rh- पॉजिटिव होता है। इसी वज़ह से ब्लड ग्रुप की संख्या 8 हो जाती है, A+, A-, B+, B- AB+, AB-, O+, O- 

किसी भी जेनेटिक बीमारी का पता ब्लड टेस्ट करके ही लगाया जाता है। रिसर्च मे यह पता लगा है कि कुछ ब्लड ग्रुप मे खास किस्म के बीमारी होने का डर ज्यादा रहता है। 

A ब्लड ग्रुप वाली महिलाएं में फर्टिलिटी कैपेसिटी अच्छा रहता है, लेकिन सॉन्ग इंफेक्शन होने का खतरा ज्यादा रहता है। A ब्लड ग्रुप वाले लोग जल्दी ही तनाव महसूस करने लगते हैं क्योंकि इस ब्लड ग्रुप में कॉर्टिसोल हार्मोन का लेवल ज्यादा रहता है।

B ब्लड ग्रुप वाले :- जिन महिलाओं का ब्लड ग्रुप बी पॉजिटिव होता है उन्हें डायबिटीज होने का खतरा ज्यादा रहता है

AB टाइप ब्लड ग्रुप वाले लोग में बढ़ती उम्र के साथ यादश्त कमजोर होने की प्रॉब्लम बाकी ब्लड ग्रुप वाले लोगों से 85% ज्यादा रहता है। इसके अलावा इन्हें दिल की बीमारी का खतरा भी ज्यादा रहता है।.

O ब्लड ग्रुप वाले लोगों में दिल की बीमारी का खतरा ज्यादा नहीं रहता है लेकिन इनके पेट में अल्सर जैसी प्रॉब्लम बहुत ज्यादा रहता हैं। 

कौन सा ब्लड ग्रुप वाले लोग किस ब्लड ग्रुप को ब्लड दे सकते हैं और किस ब्लड ग्रुप से ब्लड ले सकते हैं। इसके लिए टेबल को ध्यान से पढ़े। 

ब्लड ग्रुप 

को देनेवाला 

से लेनेवाला 

A+

A+, AB+

A+, A-, O-, O+

A-

A+, AB+, A-, AB-

A-, O-

B+

B+, AB+

B+, O+, B-, O-

B- 

B-, AB, B+, AB+

B-, O-

AB+

AB+

ALL

AB-

AB+, AB-

A-, B-, AB-, O-

O+

All+ 

O+, O-

O-

All+,All- 

O-

FAQ

 

Q1. रक्त क्या है? 

उतर :-    रक्त एक लाल रंग का द्रव है । यह एक ऐसा जीवन द्रव ( Vital Fluid ) है जिस पर प्राणियों का जीवन निर्भर करता है । नलिकाओं द्वारा यह एक स्थान से दूसरे स्थानविशेष प्रकार पर बहता रहता है ।

 यह नमकीन होता है । ताजा रक्त एक की गंध से युक्त होता है । मानव रक्त भी एक प्रकार का ऊतक है , परन्तु यह अन्य • ऊतकों से भिन्न होता है । अन्य कृतक ठोस और स्थिर रहते हैं , परन्तु रक्त द्रव होता है । एवं गतिशील भी होता है । परिणाम में यह शरीर भार का लगभग 1/20 भाग होता है । 

सामान्य स्वस्थ मनुष्य के शरीर में रक्त की मात्रा लगभग 6.7 लीटर होती है ।

Q2. रक्त में क्या पाया जाता है? 

उतर :-  रक्त में मुख्य रूप से दो पदार्थ प्लाज्मा 55 % एवं कणिकाएँ 45 % पाया जाता है। 

 

Q3. रक्त में कितने कणिकाएँ पायी जाती है? 

उतर:- रक्त में लाल – रक्त – कणिकाएँ, श्वेत रक्त कणिकाएँ, प्लेटलेट्स या बिम्बाणु पाए जाते हैं। 

 

Q4. लाल रक्त कणों के कार्य?

उतर:- लाल रक्त कण ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड को परिवहन का कार्य करता है। तथा अम्ल,क्षार को संतुलन बनाए रखता है। लाल रक्त कण की संख्या अधिक होने के कारण यह रक्त को गाढ़ा बनाता है। 

 

Q5. श्वेत रक्त कण का निर्माण कहा होता है? 

उतर:- श्वेत रक्त कण का निर्माण अस्थिमज्जा (Bone marrow) में होता है। 

 

Q6 श्वेत रक्त कण कितने प्रकार होते हैं? 

उतर:-  श्वेत रक्त कण दो प्रकार के होते हैं दानेदार श्वेत रक्त कण और दानेरहित श्वेत कण

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